पुतलीकला की खोज मानवजाति के लिए एक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण अविष्कारों में से एक है । यह कहा गया है कि पुतली की उपयोगिता उसके लिए अपने जीवन से भी बढ़कर है और इसीलिए यह आकर्षक एवं स्थायित्व को लिए हुए हैं ।
प्राचीन हिन्दू दर्शानिक पुतलकारों का बहुत ही सम्मान करते थे । वे पुतलकारों को सर्वशक्तिमान विधाता और पूरे ब्रहमाण्ड को एक पुत्तल मंच मानते थे । महान ग्रन्थ श्रीमद् भागवत, भगवान श्री कृष्ण के बालरूप की नह्द कथा के अनुसार भगवान धागों सत्, रज और तम प्रत्येक से पूरे विश्व को कठपुतली की भांति चलाते हैं ।
संसकृत शब्दावली को पुतलीका तथा पुट्टीका का अर्थ ‘छोटे पुत्रों’ से है । पुतली शब्द लेटिन भाषा के ‘प्यूपा’ से लिया गया है जिसका अर्थ है पुतली है । भारत को पुतलियों का घर कहा जाता है लेकिन अभी भी इस सम्बंध में बहुत सारी सम्भावनाओं को खोजने की आवश्यकता है ।
पुतली कला की प्राचीनता के सम्बंध में पहली एवं दूसरी सदी ईसा पूर्व में लिखे गए लेख तमिल ग्रन्थ ‘सिल्पादीकर्म’ में पाए जाते हैं ।
नाटयशास्त्र दूसरी सदी ईसा पूर्व से द्वितीय सदी इसवीं तक के दौरान कभी कभार नाटयशास्त्र पर प्रभावशाली ढंग से लिखे गए लेख पुतली कला का वर्णन नहीं मिलता है लेकिन मानव नाटय के निर्माता-सह निर्देशक को ‘सूत्रधार’ के रूप में प्रभावित किया गया है जिसका अर्थ धागों से है । इस शब्द ने नाटय शब्दावली में शायद अपना स्थान ‘नाटयशास्त्र’ के लिऐ जाने से बहुत पहले पाया है, लेकिन यह शब्द पुतलीकला नाटय (रंगमंच) से अवश्य आया होगा । इस प्रकार पतुलीकला नाटय में 500 ईसा पूर्व भी बहुत पहले वर्षों से आयी होगी ।
भारत की पुतली कला शैलियां
भारत में लगभग सभी प्रकार की पुतलियां पाई जाती हैं तथा पारंपरिक मनोरंजन में सदियों से पुतलीकला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । पारंपरिक नाटक की भांति ही पुतली नाटय महाकाव्यों और दंत कथाओं पर आधारित होते हैं तथा देश के विभिन्न प्रांतों को पुतलियों की अपनी एक खास पहचान होती है । उन में चित्रकला और मूर्तिकला की क्षेत्रीय शैली झलकती है ।
शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्रेरित करने में पुतली कला का सफलता के साथ उपयोग किया गया है । अपनी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने संबंधी कार्यक्रम काफी सहायक साबित हुए हैं । साथ ही इन कार्यक्रमों का लक्ष्य छात्रों में शब्द, आकार, रंग और गति के सौंदर्य के प्रति संवेदना जागृत करना भी है । पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम से संप्रेषण करने में जो सौंदर्य-आनंद मिलता है वह बच्चों के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास में सहायक होता है ।
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु पौराणिक साहित्य, दंत कथाओं और किंवदंतियों से ली जाती रही है तथा बदले में उनमें चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य और नाटक आदि को रचनात्मक अनुभूतियों का समावेश होता रहा है । पुतली कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने में एक साथ अनेक लोगों के सृजनात्मक प्रयासों की जरूरत पड़ती है ।
आज के आधुनिक समय में सारे विश्व के शिक्षाविदों ने संचार माध्यम रूप में पुतलियों को उपयोगिता के महत्व को अनुभव किया है । भारत में आज अनेक व्यक्ति तथा संस्थाएं शैक्षणिक संकल्पनाओं के संप्रेषण में पुतलियों के इस्तेमाल करने में छात्रों एवं अध्यापकों को सम्मिलित कर रही हैं ।
• धागा पुतली
भारत में धागा पुतलियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन तो है ही साथ ही समृद्ध भी । अनेक जोड़ युक्त अंग तथा धागों द्धारा संचालन इन्हें अत्यंत लचीलापन प्रदान करते हैं । जिस कारण ये पुतलियां काफी लचीली होती है । राजस्थान, उड़ीसा, कर्नाटक और तमिलनाडु ऐसे प्रांत हैं जहां यह पुतली कला पल्लवित हुई ।
• कठपुतली, राजस्थान
राजस्थान की परंपरागत पुतलियों की कठपुतली करहते हैं । काठ के एक टुकड़े से तराश कर बनाई गई ये पुतलियां रंगबिरंगे पहनावे में बड़ी गुडि़यों के समान लगती हैं । उनकी वेशभूषा और मुकुट मध्य कालीन राजस्थानी शैली में होती है जो आज तक प्रचलित है । अत्यन्त नाटकीय क्षेत्रीय संगीत कठपुतली नृत्य की संगत करता है । इन के अंडाकार मुख, मछलियों जैसी बड़ी-बड़ी आंख, कमानी जैसे भौं और बड़े-बड़े होंठ आदि कुछ विशिष्ट लक्षण है । इसके साथ ही ये पुतलियां लम्बा पुछल्ला लहँगा पहलती है और इनके पैरों में जोड़ नहीं होते । पुतली संचालक अपनी उंगलियों से बंधे दो या पांच धागों से उनका संचालन करता है ।
• तोलु बोम्मालट्टा, आन्ध्र प्रदेश
आन्ध्र प्रदेश की छाया नाटक को तोलु बोम्मालट्टा कहते हैं तथा इनकी परंपरा अत्यंत समृद्ध है । पुतलियां आकृति में बड़ी होती हैं और उनकी कमर, गर्दन, कंधा और घुटनों में जोड़ होते हैं । पुतलियां दोनों तरफ से रंगी जाती है जिससे पर्दे पर रंगीन छाया पड़ती है ।
पुतली नाटकों का संगीत मुख्यत: इस क्षेत्र का शास्त्रीय संगीत होता है तथा उनकी कथाएं रामायण, महाभारत और पुराणों की होती है ।
• रावण छाया उड़ीसा
उड़ीसा की रावणछाया सभी में अत्यंत नाटकीय होती है । पुतलियां एकहरी होती हैं तथा उनमें कोई संधि नहीं होती । साथ ही चूंकि वे रंगीन भी नहीं होती इस कारण पर्दे पर उनकी छाया श्वेत-श्याम होती है । पुतलियों में जोड़ न होने के कारण उनका संचालन दक्षता से करना पड़ता है । ये पुतलियां मृग-चर्म की बनी होती है तथा इनका रूप अत्यंत नाटकीय होता है । मानव एवं पशु चरित्रों के साथ-साथ वृक्ष, पर्वत तथा रथ आदि भी इस्तेमाल किए जाते हैं । यद्यपि रावणछाया पुतलियां अपने आकार में दो फीट बड़ी नहीं होती और उनके घुटने भी जोड़ युक्त नहीं होते लेकिन फिर भी उनकी छाया एकदम लयात्मक एवं संवेदनशील होती है ।
• छड़ पुतली
छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का अगला चरण है लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों पर आधारित रहती है और उसी से संचालित होती है । पुतलीकला का यह रूप आज पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा में पाया जाता है ।
• पुत्तलनाच, पश्चिमी बंगाल
पश्चिमी बंगाल की छड़ पुतली कला परंपरा को पुत्तलनाच के नाम से जाना जाता है । वे काष्ठ से बनाई जाती है और क्षेत्र विशेष की विभिन्न कला शैलियों का अनुसरण किया जाता है । संचालन की विधि रोचक होने के साथ-साथ अत्यंत रंगमंचीय होती है । संचालक की कमर से बांस की टोपी बंधी रहती है तथा उस पर पुतलियां से जुड़ी छड़ें आधारित होती हैं । प्रत्येक पुतली का संचालक आदमकद पर्दे के पीछे खड़ा रह कर स्वयं हलचल और नृत्य करता है जिससे उसके क्रिया-कलाप पुतलियों में हस्तांतरित होते रहते हैं । इनके साथ ही संचालक गीत गाता हुआ गद्यात्मक संवादों को भी बोलता है । मंच के साथ बैठे हुए तीन-चार संगीतकार ढोलक, हारमोनियम तथा झांझ बजाते हुए संगति करते हैं । लोक नाटय जात्रा से यह सब काफी साम्यता रखता है ।
उड़ीसा की छड़ पुतलियां आकार में छोटी लगभग 12 से 18 इंच लंबी होती हैं । इनमें भी जोड़ तो तीन ही होते हैं लेकिन उनके साथ छड़ों के बजाए धागों से बंधे होते हैं । इस प्रकार वहां पर छड़ पुतलियां, धागा तथा छड़ पुतलियों का समन्वित रूप होती हें । पुतली संचालक पर्दे के पीछे जमीन पर बैठ कर उनका संचालन करते हैं ।
गद्यात्मक संवाद कभी-कभार ही इस्तेमाल होते हैं । ज्यादातर संवाद गये होते हैं । संगीत लोक धुनों तथा शास्त्रीय ओडीसी धुनों का समन्वित रूप होता है । संगीत का आरंभ स्तुति से होता है तथा बाद में नाटक प्रस्तुत किया जाता है ।
पश्चिमी बंगाल तथा आंध्र प्रदेश की पुतलियों की तुलना में उड़ीसा की पुतलियां काफी छोटी होती हैं तथा पुतली नाटकों में गद्यात्मक संवाद नहीं होते ।
पश्चिमी बंगाल के नादिया जिले में आदमकद पुतलियां होती थी जैसी की जापान की बनराकू । लेकिन पुतलियों का यह रूप अब विलुप्त हो गया है । पश्चिमी बंगाल की शेष प्रचलित पुतलियां तीन-चार फुट लंबी होती हैं तथा वहां के लोक-नाटक जात्रा के पात्रों की भांति उनके भी परिधान होते हैं । प्राय: इनमें तीन जोड़े होते हैं । मुख्य छड़ पर आधारित मस्तक गर्दन से जुड़ा होता है तथा दो छड़ों से जुड़े हाथ कंधे से मिले होते हैं ।
• यमपुरी, बिहार
बिहार की पारंपरिक छड़ पुतलियों को यमपुरी के नाम से जाना जाता है । ये पुतलियां काष्ठ की बनी होती हैं । पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा की छड़ पुतलियों के समान ये पुतलियां एक टुकड़े में होती हैं और उनमें कोई जोड़ नहीं होता है । चूंकि इनमें कोई जोड़ नहीं होता, इसलिए इन्हें चलाना अन्य छड़ पुतलियों से भिन्न होता है अत: इन्हें चलाने में अति निपुणता की आवश्यकता होती है ।
• दस्ताना पुतली
दस्ताना पुतली को भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है । इन पुतलियों का मस्तक पेपर मेशे (कुट्टी), कपड़े या लकड़ी का बना होता है तथा गर्दन के नीचे से दोनों हाथ बाहर निकलते हैं । शेष शरीर के नाम पर केवल एक लहराता घाघरा होता है । ये पुतलियां वैसे तो निर्जीव गुडि़यों जैसी होती हैं तपर निपुण संचालक के हाथों में पहुंचते ही अनेक गतिविधियों को सक्षमता से प्रस्तुत करती हैं । इनके परिचालन की विधि अत्यंत सरल है । हाथों से गतिविधियों पर नियंत्रण रखा जाता है । पहली अंगुली मस्तक में जाती है तथा मध्यमा और अंगूठा पुतली की दोनों भुजाओं में । इस प्रकार अंगूठे और दो अंगुलियों की सहायता से दस्ताना अंगुली सजीव हो उठती है ।
भारत में दस्ताना पुतली की परम्परा उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और केरल में लोकप्रिय है । उत्तर प्रदेश के दस्ताना पुतली नाटक सामाजिक विषय वस्तु प्रस्तुत करते हैं तो उड़ीसा में राधा-कृष्ण की कहानियों पर ये नाटक आधारित होते हैं । उड़ीसा में संचालक एक हाथ में ढोलक बजाता है और दूसरे हाथ से पुतले का संचालन करता है । संवाद बोलना, पुतली का संचालन और ढोलक की थाप सुन्दर रूप से क्रमानुसार होता है और एक नाटकीय वातावरण की सृष्टि होती है ।
• पावाकूथू, केरल
केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है । इसका प्रार्दुभाव 18वीं शताब्दी में वहां के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य नाटक कथकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण हुआ । पावाकूथू में पुतली की लंबाई एक-दो फीट के बीच होती है । मस्तक तथा दोनों हाथ लकड़ी से बना कर एक मोटे कपड़े से जोड़े जाते हैं फिर एक छोटे से थैले के रूप में सिए जाते हैं ।
पुतली के चेहरे के अंकरण में रंग, चमकीले टीन के टुकड़े तथा मोरपंखों का उपयोग किया जाता है । परिचालक उस थैली में अपनी हाथ डाल कर पुतली के मस्तक और दोनों भुजाओं का संचालन करता है । इस प्रस्तुति के समय चेंडा, चेनगिल, इलाथलम वाद्य-यंत्रों तथा शंख का उपयोग किया जाता है । केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा महाभारत की कथाओं पर आधारित होते हैं ।
प्राचीन हिन्दू दर्शानिक पुतलकारों का बहुत ही सम्मान करते थे । वे पुतलकारों को सर्वशक्तिमान विधाता और पूरे ब्रहमाण्ड को एक पुत्तल मंच मानते थे । महान ग्रन्थ श्रीमद् भागवत, भगवान श्री कृष्ण के बालरूप की नह्द कथा के अनुसार भगवान धागों सत्, रज और तम प्रत्येक से पूरे विश्व को कठपुतली की भांति चलाते हैं ।
संसकृत शब्दावली को पुतलीका तथा पुट्टीका का अर्थ ‘छोटे पुत्रों’ से है । पुतली शब्द लेटिन भाषा के ‘प्यूपा’ से लिया गया है जिसका अर्थ है पुतली है । भारत को पुतलियों का घर कहा जाता है लेकिन अभी भी इस सम्बंध में बहुत सारी सम्भावनाओं को खोजने की आवश्यकता है ।
पुतली कला की प्राचीनता के सम्बंध में पहली एवं दूसरी सदी ईसा पूर्व में लिखे गए लेख तमिल ग्रन्थ ‘सिल्पादीकर्म’ में पाए जाते हैं ।
नाटयशास्त्र दूसरी सदी ईसा पूर्व से द्वितीय सदी इसवीं तक के दौरान कभी कभार नाटयशास्त्र पर प्रभावशाली ढंग से लिखे गए लेख पुतली कला का वर्णन नहीं मिलता है लेकिन मानव नाटय के निर्माता-सह निर्देशक को ‘सूत्रधार’ के रूप में प्रभावित किया गया है जिसका अर्थ धागों से है । इस शब्द ने नाटय शब्दावली में शायद अपना स्थान ‘नाटयशास्त्र’ के लिऐ जाने से बहुत पहले पाया है, लेकिन यह शब्द पुतलीकला नाटय (रंगमंच) से अवश्य आया होगा । इस प्रकार पतुलीकला नाटय में 500 ईसा पूर्व भी बहुत पहले वर्षों से आयी होगी ।
भारत की पुतली कला शैलियां
भारत में लगभग सभी प्रकार की पुतलियां पाई जाती हैं तथा पारंपरिक मनोरंजन में सदियों से पुतलीकला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । पारंपरिक नाटक की भांति ही पुतली नाटय महाकाव्यों और दंत कथाओं पर आधारित होते हैं तथा देश के विभिन्न प्रांतों को पुतलियों की अपनी एक खास पहचान होती है । उन में चित्रकला और मूर्तिकला की क्षेत्रीय शैली झलकती है ।
शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्रेरित करने में पुतली कला का सफलता के साथ उपयोग किया गया है । अपनी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने संबंधी कार्यक्रम काफी सहायक साबित हुए हैं । साथ ही इन कार्यक्रमों का लक्ष्य छात्रों में शब्द, आकार, रंग और गति के सौंदर्य के प्रति संवेदना जागृत करना भी है । पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम से संप्रेषण करने में जो सौंदर्य-आनंद मिलता है वह बच्चों के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास में सहायक होता है ।
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु पौराणिक साहित्य, दंत कथाओं और किंवदंतियों से ली जाती रही है तथा बदले में उनमें चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य और नाटक आदि को रचनात्मक अनुभूतियों का समावेश होता रहा है । पुतली कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने में एक साथ अनेक लोगों के सृजनात्मक प्रयासों की जरूरत पड़ती है ।
आज के आधुनिक समय में सारे विश्व के शिक्षाविदों ने संचार माध्यम रूप में पुतलियों को उपयोगिता के महत्व को अनुभव किया है । भारत में आज अनेक व्यक्ति तथा संस्थाएं शैक्षणिक संकल्पनाओं के संप्रेषण में पुतलियों के इस्तेमाल करने में छात्रों एवं अध्यापकों को सम्मिलित कर रही हैं ।
• धागा पुतली
भारत में धागा पुतलियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन तो है ही साथ ही समृद्ध भी । अनेक जोड़ युक्त अंग तथा धागों द्धारा संचालन इन्हें अत्यंत लचीलापन प्रदान करते हैं । जिस कारण ये पुतलियां काफी लचीली होती है । राजस्थान, उड़ीसा, कर्नाटक और तमिलनाडु ऐसे प्रांत हैं जहां यह पुतली कला पल्लवित हुई ।
• कठपुतली, राजस्थान
राजस्थान की परंपरागत पुतलियों की कठपुतली करहते हैं । काठ के एक टुकड़े से तराश कर बनाई गई ये पुतलियां रंगबिरंगे पहनावे में बड़ी गुडि़यों के समान लगती हैं । उनकी वेशभूषा और मुकुट मध्य कालीन राजस्थानी शैली में होती है जो आज तक प्रचलित है । अत्यन्त नाटकीय क्षेत्रीय संगीत कठपुतली नृत्य की संगत करता है । इन के अंडाकार मुख, मछलियों जैसी बड़ी-बड़ी आंख, कमानी जैसे भौं और बड़े-बड़े होंठ आदि कुछ विशिष्ट लक्षण है । इसके साथ ही ये पुतलियां लम्बा पुछल्ला लहँगा पहलती है और इनके पैरों में जोड़ नहीं होते । पुतली संचालक अपनी उंगलियों से बंधे दो या पांच धागों से उनका संचालन करता है ।
• कुनढेई, उड़ीसा
उड़ीसा की धागा पुतली को कुनढेई कहते हैं । ये हल्की लकड़ी से बनी होती है और इनके पैर नहीं होते तथा ये पुछल्ला लहँगा पहने होती हैं । इन पुतलियों में अनेक जोड़ होते हैं । इसी कारण इनका संचालन सरल है । पुतली संचालक साधारणत: एक लकड़ी के तिकोने फ्रेम को पकड़े रहता है जिस पर संचालन करने के लिए धागे बंधे होते हैं । परंपरागत जात्रा नाटक के अभिनेताओं के भांति कुनढेई की वेशभूषा होती है । क्षेत्र की प्रसिद्ध धुनों से ही संगीत लिया जाता है और कभी-कभी ओडिसी नृत्य के संगीत का गहरा प्रभाव दिखता है ।
• गोम्बेयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक की धागा पुतली को गोम्बेयेट्टा कहते हैं । गोम्बेयेट्टा का सम्बन्ध कर्नाटक के नोकनृत्य यक्षगान से है इसी कारण यह उससे काफी साम्यता रखता है । गोम्बेयेट्टा पुतलियों की आकृतियां अत्यंत सुसज्जित होती हैं और पैर, कंधे, कोहनी, कूल्हे और घुटने में जोड़ होते हैं । इनका संचालन फ्रेम से बंधे हुए पांच से सात धागों से होता है । दो तीन संचालकों के एक साथ संचालन द्वारा पुतली की कुछ जटिल क्रियाओं का प्रदर्शन भी किया जाता है गोम्बेयेट्टा में यक्षगान के प्रसंगों को प्रदर्शित किया जाता है साथ में बजने वाला संगीत नाटकीय होने के साथ-साथ लोक संगीत तथा शास्त्रीय संगीत का सुंदर समन्वित रूप होता है ।
• बोम्मालट्टा, तमिलनाडु
छड़ और धागा पुतली की तकनीक तमिलनाडु की ‘बोम्मालट्टा पुतली में एक साथ मिलती है । ये लकड़ी से बनी होती हैं और संचालन करने के धागे एक लोहे के रिंग से बंधे रहते हैं जिसे कि पुतली संचालक मुकुट की तरह अपने सिर पर धारण किए रहते हैं ।
कुछ पुतलियों की हथेलियों और हाथों में जोड़ होते हैं जिनका संचालन छड़ों से होता है । बोम्मालट्टा पुतली आकार में बड़ी और भारी होती है और भारतीय परंपरागत पुतलियों में सबसे सुस्पष्ट होती है । एक पुतली लगभग साढ़े चार फीट ऊंची होती है तथा उसका वजन दस किलो के आस-पास होता है । इस नाटय विधा के प्रारंभिक कार्य विनायक पूजा, कोमली, अमनाट्टम तथा पुसेकनाट्टम आदि चार भागों में विभक्त रहते हैं ।
• छाया पुतली
भारत में अनेक प्रकार की छाया पुतलियों का प्रचयन है और विभिन्न प्रांतों में उसकी अनेक शैलियां विद्यमान है । छाया पुतलियां चपटी होती हैं, अधिकांशत: वे चमड़े से बनाई जाती है । इन्हें पारभासी बनाने के लिए संशोधित किया जाता है । पर्दे को पीछे से प्रदीप्त किया जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है । दर्शक पर्दे के दूसरे तरफ से छायाकृतियों को देखते हैं । ये छायाकृतियां रंगीन भी हो सकती हैं । छाया पुतली की यह परंपरा उड़ीस, केरल, आन्ध्र प्रदेश, कनार्टक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है ।
• तोगलु गोम्बयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक में छाया पुतली को तोगलु गोम्बयेट्टा कहते हैं । यह साधारणत: आकार में छोटी होती हैं । सामाजिक परिवेश के अनुसार पत्रों के आधार बड़े-छोटे होते हैं । जैसे राजाओं और धार्मिक पात्रों के आकार बड़े होते हैं
उड़ीसा की धागा पुतली को कुनढेई कहते हैं । ये हल्की लकड़ी से बनी होती है और इनके पैर नहीं होते तथा ये पुछल्ला लहँगा पहने होती हैं । इन पुतलियों में अनेक जोड़ होते हैं । इसी कारण इनका संचालन सरल है । पुतली संचालक साधारणत: एक लकड़ी के तिकोने फ्रेम को पकड़े रहता है जिस पर संचालन करने के लिए धागे बंधे होते हैं । परंपरागत जात्रा नाटक के अभिनेताओं के भांति कुनढेई की वेशभूषा होती है । क्षेत्र की प्रसिद्ध धुनों से ही संगीत लिया जाता है और कभी-कभी ओडिसी नृत्य के संगीत का गहरा प्रभाव दिखता है ।
• गोम्बेयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक की धागा पुतली को गोम्बेयेट्टा कहते हैं । गोम्बेयेट्टा का सम्बन्ध कर्नाटक के नोकनृत्य यक्षगान से है इसी कारण यह उससे काफी साम्यता रखता है । गोम्बेयेट्टा पुतलियों की आकृतियां अत्यंत सुसज्जित होती हैं और पैर, कंधे, कोहनी, कूल्हे और घुटने में जोड़ होते हैं । इनका संचालन फ्रेम से बंधे हुए पांच से सात धागों से होता है । दो तीन संचालकों के एक साथ संचालन द्वारा पुतली की कुछ जटिल क्रियाओं का प्रदर्शन भी किया जाता है गोम्बेयेट्टा में यक्षगान के प्रसंगों को प्रदर्शित किया जाता है साथ में बजने वाला संगीत नाटकीय होने के साथ-साथ लोक संगीत तथा शास्त्रीय संगीत का सुंदर समन्वित रूप होता है ।
• बोम्मालट्टा, तमिलनाडु
छड़ और धागा पुतली की तकनीक तमिलनाडु की ‘बोम्मालट्टा पुतली में एक साथ मिलती है । ये लकड़ी से बनी होती हैं और संचालन करने के धागे एक लोहे के रिंग से बंधे रहते हैं जिसे कि पुतली संचालक मुकुट की तरह अपने सिर पर धारण किए रहते हैं ।
कुछ पुतलियों की हथेलियों और हाथों में जोड़ होते हैं जिनका संचालन छड़ों से होता है । बोम्मालट्टा पुतली आकार में बड़ी और भारी होती है और भारतीय परंपरागत पुतलियों में सबसे सुस्पष्ट होती है । एक पुतली लगभग साढ़े चार फीट ऊंची होती है तथा उसका वजन दस किलो के आस-पास होता है । इस नाटय विधा के प्रारंभिक कार्य विनायक पूजा, कोमली, अमनाट्टम तथा पुसेकनाट्टम आदि चार भागों में विभक्त रहते हैं ।
• छाया पुतली
भारत में अनेक प्रकार की छाया पुतलियों का प्रचयन है और विभिन्न प्रांतों में उसकी अनेक शैलियां विद्यमान है । छाया पुतलियां चपटी होती हैं, अधिकांशत: वे चमड़े से बनाई जाती है । इन्हें पारभासी बनाने के लिए संशोधित किया जाता है । पर्दे को पीछे से प्रदीप्त किया जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है । दर्शक पर्दे के दूसरे तरफ से छायाकृतियों को देखते हैं । ये छायाकृतियां रंगीन भी हो सकती हैं । छाया पुतली की यह परंपरा उड़ीस, केरल, आन्ध्र प्रदेश, कनार्टक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है ।
• तोगलु गोम्बयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक में छाया पुतली को तोगलु गोम्बयेट्टा कहते हैं । यह साधारणत: आकार में छोटी होती हैं । सामाजिक परिवेश के अनुसार पत्रों के आधार बड़े-छोटे होते हैं । जैसे राजाओं और धार्मिक पात्रों के आकार बड़े होते हैं
जबकि आम जनता और नौकरों के आकार छोटे होते हैं ।
• तोलु बोम्मालट्टा, आन्ध्र प्रदेश
आन्ध्र प्रदेश की छाया नाटक को तोलु बोम्मालट्टा कहते हैं तथा इनकी परंपरा अत्यंत समृद्ध है । पुतलियां आकृति में बड़ी होती हैं और उनकी कमर, गर्दन, कंधा और घुटनों में जोड़ होते हैं । पुतलियां दोनों तरफ से रंगी जाती है जिससे पर्दे पर रंगीन छाया पड़ती है ।
पुतली नाटकों का संगीत मुख्यत: इस क्षेत्र का शास्त्रीय संगीत होता है तथा उनकी कथाएं रामायण, महाभारत और पुराणों की होती है ।
• रावण छाया उड़ीसा
उड़ीसा की रावणछाया सभी में अत्यंत नाटकीय होती है । पुतलियां एकहरी होती हैं तथा उनमें कोई संधि नहीं होती । साथ ही चूंकि वे रंगीन भी नहीं होती इस कारण पर्दे पर उनकी छाया श्वेत-श्याम होती है । पुतलियों में जोड़ न होने के कारण उनका संचालन दक्षता से करना पड़ता है । ये पुतलियां मृग-चर्म की बनी होती है तथा इनका रूप अत्यंत नाटकीय होता है । मानव एवं पशु चरित्रों के साथ-साथ वृक्ष, पर्वत तथा रथ आदि भी इस्तेमाल किए जाते हैं । यद्यपि रावणछाया पुतलियां अपने आकार में दो फीट बड़ी नहीं होती और उनके घुटने भी जोड़ युक्त नहीं होते लेकिन फिर भी उनकी छाया एकदम लयात्मक एवं संवेदनशील होती है ।
• छड़ पुतली
छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का अगला चरण है लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों पर आधारित रहती है और उसी से संचालित होती है । पुतलीकला का यह रूप आज पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा में पाया जाता है ।
• पुत्तलनाच, पश्चिमी बंगाल
पश्चिमी बंगाल की छड़ पुतली कला परंपरा को पुत्तलनाच के नाम से जाना जाता है । वे काष्ठ से बनाई जाती है और क्षेत्र विशेष की विभिन्न कला शैलियों का अनुसरण किया जाता है । संचालन की विधि रोचक होने के साथ-साथ अत्यंत रंगमंचीय होती है । संचालक की कमर से बांस की टोपी बंधी रहती है तथा उस पर पुतलियां से जुड़ी छड़ें आधारित होती हैं । प्रत्येक पुतली का संचालक आदमकद पर्दे के पीछे खड़ा रह कर स्वयं हलचल और नृत्य करता है जिससे उसके क्रिया-कलाप पुतलियों में हस्तांतरित होते रहते हैं । इनके साथ ही संचालक गीत गाता हुआ गद्यात्मक संवादों को भी बोलता है । मंच के साथ बैठे हुए तीन-चार संगीतकार ढोलक, हारमोनियम तथा झांझ बजाते हुए संगति करते हैं । लोक नाटय जात्रा से यह सब काफी साम्यता रखता है ।
उड़ीसा की छड़ पुतलियां आकार में छोटी लगभग 12 से 18 इंच लंबी होती हैं । इनमें भी जोड़ तो तीन ही होते हैं लेकिन उनके साथ छड़ों के बजाए धागों से बंधे होते हैं । इस प्रकार वहां पर छड़ पुतलियां, धागा तथा छड़ पुतलियों का समन्वित रूप होती हें । पुतली संचालक पर्दे के पीछे जमीन पर बैठ कर उनका संचालन करते हैं ।
गद्यात्मक संवाद कभी-कभार ही इस्तेमाल होते हैं । ज्यादातर संवाद गये होते हैं । संगीत लोक धुनों तथा शास्त्रीय ओडीसी धुनों का समन्वित रूप होता है । संगीत का आरंभ स्तुति से होता है तथा बाद में नाटक प्रस्तुत किया जाता है ।
पश्चिमी बंगाल तथा आंध्र प्रदेश की पुतलियों की तुलना में उड़ीसा की पुतलियां काफी छोटी होती हैं तथा पुतली नाटकों में गद्यात्मक संवाद नहीं होते ।
पश्चिमी बंगाल के नादिया जिले में आदमकद पुतलियां होती थी जैसी की जापान की बनराकू । लेकिन पुतलियों का यह रूप अब विलुप्त हो गया है । पश्चिमी बंगाल की शेष प्रचलित पुतलियां तीन-चार फुट लंबी होती हैं तथा वहां के लोक-नाटक जात्रा के पात्रों की भांति उनके भी परिधान होते हैं । प्राय: इनमें तीन जोड़े होते हैं । मुख्य छड़ पर आधारित मस्तक गर्दन से जुड़ा होता है तथा दो छड़ों से जुड़े हाथ कंधे से मिले होते हैं ।
• यमपुरी, बिहार
बिहार की पारंपरिक छड़ पुतलियों को यमपुरी के नाम से जाना जाता है । ये पुतलियां काष्ठ की बनी होती हैं । पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा की छड़ पुतलियों के समान ये पुतलियां एक टुकड़े में होती हैं और उनमें कोई जोड़ नहीं होता है । चूंकि इनमें कोई जोड़ नहीं होता, इसलिए इन्हें चलाना अन्य छड़ पुतलियों से भिन्न होता है अत: इन्हें चलाने में अति निपुणता की आवश्यकता होती है ।
• दस्ताना पुतली
दस्ताना पुतली को भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है । इन पुतलियों का मस्तक पेपर मेशे (कुट्टी), कपड़े या लकड़ी का बना होता है तथा गर्दन के नीचे से दोनों हाथ बाहर निकलते हैं । शेष शरीर के नाम पर केवल एक लहराता घाघरा होता है । ये पुतलियां वैसे तो निर्जीव गुडि़यों जैसी होती हैं तपर निपुण संचालक के हाथों में पहुंचते ही अनेक गतिविधियों को सक्षमता से प्रस्तुत करती हैं । इनके परिचालन की विधि अत्यंत सरल है । हाथों से गतिविधियों पर नियंत्रण रखा जाता है । पहली अंगुली मस्तक में जाती है तथा मध्यमा और अंगूठा पुतली की दोनों भुजाओं में । इस प्रकार अंगूठे और दो अंगुलियों की सहायता से दस्ताना अंगुली सजीव हो उठती है ।
भारत में दस्ताना पुतली की परम्परा उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और केरल में लोकप्रिय है । उत्तर प्रदेश के दस्ताना पुतली नाटक सामाजिक विषय वस्तु प्रस्तुत करते हैं तो उड़ीसा में राधा-कृष्ण की कहानियों पर ये नाटक आधारित होते हैं । उड़ीसा में संचालक एक हाथ में ढोलक बजाता है और दूसरे हाथ से पुतले का संचालन करता है । संवाद बोलना, पुतली का संचालन और ढोलक की थाप सुन्दर रूप से क्रमानुसार होता है और एक नाटकीय वातावरण की सृष्टि होती है ।
• पावाकूथू, केरल
केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है । इसका प्रार्दुभाव 18वीं शताब्दी में वहां के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य नाटक कथकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण हुआ । पावाकूथू में पुतली की लंबाई एक-दो फीट के बीच होती है । मस्तक तथा दोनों हाथ लकड़ी से बना कर एक मोटे कपड़े से जोड़े जाते हैं फिर एक छोटे से थैले के रूप में सिए जाते हैं ।
पुतली के चेहरे के अंकरण में रंग, चमकीले टीन के टुकड़े तथा मोरपंखों का उपयोग किया जाता है । परिचालक उस थैली में अपनी हाथ डाल कर पुतली के मस्तक और दोनों भुजाओं का संचालन करता है । इस प्रस्तुति के समय चेंडा, चेनगिल, इलाथलम वाद्य-यंत्रों तथा शंख का उपयोग किया जाता है । केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा महाभारत की कथाओं पर आधारित होते हैं ।
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