Friday, 15 May 2015

Guptkalin murti kala

चौथी शताब्दीद ईसवी सन् में गुप्तह साम्राज्यम की नींव पड़ने से एक अन्य युग की शुरुआत हो गई थी । गुप्ता राजा छठीं शताब्दीा तक उत्त र भारत में शक्तिशाली थे, उनके समय में कला, विज्ञान और साहित्यर ने अत्य धिक समृद्धि हासिल की । ब्राह्मणीय, जैन और बौद्ध देवताओं के प्रतिमा-विज्ञान के मानदण्डों को सटीक बनाया गया तथा उनका मानकीकरण किया गया था, जिसने उत्त्रवर्ती शताब्दियों के लिए आदर्श नमूने के रूप में न केवल भारत में बल्कि इसकी सीमा के पार भी कार्य किया । यह चहुँमुखी सम्पूतर्णता का युग था । जैसा कि कालिदास की रचनाओं में, पारिवारिक जीवन प्रशासन तथा साहित्यस कला सबंधी रचनाओं में और धर्म तथा दर्शन-शास्त्रन में तथा भागवत् भक्ति में उदाहरण देकर समझाया गया है । यह स्वीदेशी जीवन, प्रशासन, साहित्य् में समग्र सम्पूथर्णता का एक युग था जिसने सौन्दणर्य के एक गहन पंथ के रूप में अपनी एक पहचान स्थाथपित की ।

गुप्त काल के साथ-साथ भारत ने मूर्तिकला के उत्कृयष्ट् काल में प्रवेश किया था । शताब्दियों के प्रयास से कला की तकनीकों को सम्पूउर्णता मिली । निश्चित शैलियों का विकास हुआ, और सूक्ष्मकता से सौन्दोर्य के आदर्शों का सृजन हुआ । अब अंधेरे में भटकने जैसी कोई बात नहीं थी अब कोई प्रयोग नहीं हो रहे थे । कला के वास्तहविक लक्ष्यों और अनिवार्य सिद्धान्तों को बुद्धिमानी से पूर्णरूपेण समझ कर एक उच्च। विकसित सौन्दुर्य बोध और कुशल हाथों द्वारा कौशलपूर्ण निष्पानदन कर ऐसी अद्वितीय कृतियों को जन्म दिया जो उत्तौरवर्ती युगों के भारतीय कलाकारों के लिए आदर्श और निर्भीकतापूर्ण थे । गुप्ता प्रतिमाएं आने वाले समय के लिए भारतीय कला का मात्र मॉडल ही नहीं रहीं बल्कि इन्हों ने सुदूर पूर्व में उपनिवेशों में आदर्शों के रूप में भी कार्य किया ।


विष्णु अनंतशेषशायी, विष्णु मंदिर, देवगढ़, उत्तर प्रदेश

गुप्तक काल में पूर्ववर्ती चरणों के कलात्ममक व्य्वसायों की सभी प्रवृत्तियां और रुझान भारतीय इतिहास के सर्वोच्च् महत्व्त क के एकीकृत प्रतिभाविधायक परम्पभरा की पराकाष्‍ठा में पहुंच गए थे । इस प्रकार से गुप्तह मूर्तिकला अमरावती और मथुरा की प्रारम्भिक उत्कृ ष्टी मूर्तिकला का एक तार्किक परिणाम है । इसकी सुघट्यता मथु रा से और लालित्यव अमरावती से लिया गया है । फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तव मूर्तिकला का संबंध एक ऐसे क्षेत्र से है जो पूर्णरूपेण भिन्नत है । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्ता कलाकार एक उच्चततर आदर्श के लिए कार्य कर रहे हैं । कला और विचारधारा के बीच लोगों के बाह्य रूपों और आन्तिरिक बुद्धिमत्ता और आत्मिक संकल्प ना के बीच एक निकट सौहार्द स्था पित करने के प्रयास में कला के प्रति दृष्टिकोण में नया अभिविन्या्स देखा गया है ।

भरहुत, अमरावती, सांची और मथुरा की कला एक-दूसरे के निकट और निकट आती चली गई और मिलकर एक हो गई । संरचना में, महिला आकृति अब आकर्षण का केन्द्र बन गई है और प्राकृतिक सौन्द र्य पृष्ठीभूमि में रह गया लेकिन ऐसा करते समय मानवकृतियों मे इसने अपने कभी न समाप्तद होने वाले और तरंगित लय की छाप छोड़ी है । मानव आकृति को एक प्रतिमा के रूप में मानते हुए यह गुप्त मूर्तिकला की धुरी बन गई है । सौन्दनर्य के एक नए मानदण्डी का विकास हुआ जिसके परिणामस्वपरूप सौन्दहर्य के एक नवीन आदर्श का आविर्भाव हुआ । यह आदर्श मानव शरीर में इसकी कोमलता और लचीलेपन के संबंध में एक सुस्पिष्टय समझ पर आधारित है । गुप्तत मूर्तिकला अपनी चिकनी और चमकदार सरंचना के साथ अपने कौशल तथा नमनशील शरीर निर्बाध एवं सरल संचलन को सुविधाजनक बनाता है और विश्राम का आभास कराती मूर्ति भीतर से उत्पशन्न होने वाली ऊर्जा से भरी हुई प्रतीत होती है । ऐसा केवल बौद्ध, ब्राह्यणीय और जैन देवताओं की प्रतिमाओं के संबंध में ही नहीं बल्कि पुरुषों तथा महिलाओं की मूर्तियों के संबंध में भी सच है । कलाकार इसके लिए प्ला स्टिक की सतह की अति संवेदनशीलता पर बल देने का प्रयास करता है और इसके लिए शरीर को ढकने का प्रयास करने वाले अलंकृत वस्त्रे, आभूषण आदि जैसी अतिशयताएं न्यूधनतम रह जाती हैं । अत: गीले या पारदर्शी चिपके हुए वस्त्र इस युग का फैशन बन गए थे

लेकिन विशेष रूप से महिला आकृतियों के मामले में इन वस्‍त्रों के इन्द्रियगत प्रभाव की जागरूक नैतिक अनुभूति को प्रतिबंधित कर दिया था और गुप्‍त मूर्तिकला से नग्‍नता को एक नियम के रूप में समाप्‍त कर दिया गया था । इस अवधि की महान कलात्‍मक रचनाओं में मधुर तथा कोमल रूपरेखाओं का समावेश किया गया था, अलंकरण और सम्‍मानित आत्‍मसंयम को निमंत्रित किया था । गुप्‍तकाल के संरक्षण में, मथुरा और सारनाथ के अध्‍ययनों ने अत्‍यधिक गुणों वाली अनेक कृतियों का निर्माण किया । हालांकि ये धर्म से हिन्‍दू थे तथापि सहिष्‍णु शासक थे ।

मथुरा से बुद्ध की भव्य लाल बलुआ पत्थलर की प्रतिमा पांचवीं शताब्दी ईसवी सन् की गुप्तड कारीगरी का एक सर्वाधिक असाधारण उदाहरण है । यहां महान गुरु को उसकी सम्पू र्ण भव्यशता के साथ खड़े हुए दिखाया जाता है, उसका दाहिना हाथ संरक्षण आश्वनस्तय करते हुए अभयमुद्रा में है और बाएं हाथ से वस्त्र का किनारा पकड़ा हुआ है । उदास नेत्रों के साथ मुस्कुरराती हुई उसकी मुखाकृति आत्मिक उल्लाएस से वंचित रह जाती है । दोनों कंधों को ढकने वाले वस्त्रा का कुशलतापूर्वक निरूपण निपुणतापूर्वक ढकी हुई आरेखीय परतों से होता है और यह वस्त्र शरीर से चिपका है । सिर एक केन्रीपू य उभार के साथ आरेखीय सर्पिल कुण्डतलों से ढका है और विस्तृ त प्रभामण्डेल मनोहारी आभूषणों के संकेन्द्रित फीतों से सजा है ।

बुद्ध की प्रतिमा में परिष्कृनत प्रवीणता और अभिव्यपक्ति की राजसी शक्ति को स्याहम, कम्बो डिया, बर्मा, जावा, मध्ये एशिया, चीन तथा जापान आदि ने बौद्ध धर्म अपनाने के साथ ही स्थानीय परिर्वतन के साथ ग्रहण किया ।

सारनाथ में खड़े हुए बुद्ध की प्रतिमा परिपक्व ता में गुप्ततकालीन कला का एक उत्कृ्ष्टा उदाहरण है । कोमलता से झुकी हुई आकृति में दाहिना हाथ संरक्षण आश्वास्त‍ करने की स्थिति में है । मथुरा की बुद्ध की मूर्ति में निपुणतापूर्वक काट कर बनाई गई वस्त्रोंा की परतों से भिन्नव, पारदर्शक वस्त्रों के किनारे मात्र को दर्शाया गया है । अपनी शान्तु आत्मिक अभिव्यईक्ति से मेल खाती हुई आकृति का सटीक निष्पा‍दन वास्ततव में उत्कृाष्टद कहलाने के योग्यअ है ।

बुद्ध की खड़ी हुई प्रतिमा, सारनाथ, उत्तर प्रदेश


सारनाथ, न केवल रूप की कोमलता और परिष्कयरण से परिचय कराता है बल्कि अपनी स्वकयं की धुरी पर हल्केा से टिकी हुई खड़ी आकृति के संबंध में शरीर को झुका कर विश्राम की एक मुद्रा को भी प्रस्तुबत करता है । इस प्रकार इसमें मथुरा की समान कृतियों की कठोरता के प्रतिकूल कुछ लचीलापन और संचलन मिलता है । यहां तक कि बैठी हुई प्रतिमा प्रतिरूपण छरहरे शरीर, संचलन का आभास गूढ़ सूक्ष्मीता के साथ कराती हैं । परतों को अब बिल्कुील निकाल दिया गया है, शरीर पर वस्त्रं अब पतली रेखाओं के रूप में विद्यमान हैं जो वस्त्र के किनारों का संकेत देते हैं । पृथक होने वाली परतों को पुन: मलमल का वस्त्र दिया जाता है । शरीर में अपनी चिकनी तथा चमकदार सुगढ़ता सारनाथ के कलाकारों के मूल विषय थे ।

गुप्त काल के दौरान भारतीय मन्दिरों की विशेषताओं वाले तत्व्की उभर कर सामने आए । मूर्तियों का सामान्य वास्तुपकला योजना के एक आन्तोरिक भाग के रूप में उत्तबम रीति से प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया गया । देवगढ़ के मन्दिरों और उदयगिरि तथा अजन्तात के मन्दिरों के प्रस्तपर उत्कीमर्णन अपने सजावटी विन्यामस में मूर्तिकला के उत्कृ्ष्ट् नमूने हैं । देवगढ़ मन्दिर में अनन्त सर्प पर सोते हुए परमसत्ता का प्रतिनिधित्वक करने वाले शेषशायी विष्णुा का एक विशाल पैनल, विश्व की समाप्ति और इसके नए सृजन के बीच की अवधि में शाश्वततता का एक उत्तरम उदाहरण है ।
चार भुजा वाले विष्णु ऐसे आदिशेष की कुण्ड ली पर शालीनता से लेटे हुए हैं जिसके चार फन विष्णु के मुकुटधारी सिर पर एक छतरी बनाते हैं । उनकी पत्नीश लक्ष्मील उनकी दाहिना पांव दबा रही हैं और दो परिचर आकृतियां लक्ष्मीस के पीछे खड़ी हैं । कई देव तथा दिव्य् पुरुष ऊपर घूम रहे हैं । उभरी पैनल में, मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस, जो कि आक्रमण करने की मुद्रा में, विष्णुक के चार मूर्तिमान अस्त्रों को चुनौती दे रहे हैं । पूरी संरचना को उत्कृटष्टा कौशल से बनाया गया है जो नितान्‍त शान्ति आन्दोवलित तनाव का एक वातावरण उत्पोन्नच करती है और इसे कला की एक श्रेष्ठय कृति बनाती है ।

विष्णु अनंतशेषशायी, का विवरण, विष्णु मंदिर देवगढ़, उत्तर प्रदेश
विष्णु् की एक भव्य मूर्ति का संबंध गुप्त काल, पांचवीं शताब्दीर ईसवी सन् से है जो मथुरा में है । प्रतीकात्म्क गाउन, वनमाला, मोतियों की ऐसी मनोहारी डोरी जो ग्रीवा के चारों ओर घूमती है, लम्बाव और सुरुचिपूर्ण यज्ञपवित्र, प्रारम्भिक गुप्ता कृति के उदाहरण हैं ।

अहिछत्र में शिव मंन्दिर के ऊपरी चबूतरे की ओर जाने वाली प्रमुख सीढ़ी के पार्श्वर के आलों में मूल रूप से स्थाडपित गंगा और यमुना, दो आदमकद पक्की मिट्टी की मूर्तियों का संबंध गुप्तव काल चौथी शताब्दी ईसवी से है । गंगा अपने वाहन मकर और यमुना कच्छकप पर खड़ी है । कालिदास ने इन दोनों देव नदियों का शिव के परिचर के रूप में उल्ले ख किया है तथा ऐसा गुप्तु काल की परवर्ती मन्दिर वास्तुकला की एक नियमित विशेषता के रूप में होता है । इसका सर्वाधिक उल्ले खनीय उदाहरण देवगढ़ के ब्राह्यणीय मन्दिर के द्वार के बाजू हैं । मिट्टी की लघु-मूर्ति का सामाजिक और धार्मिक इतिहास के स्रोतों के रूप में अत्यरधिक महत्व्र है । भारत में पकी हुई चिकनी मिट्टी से निर्मित लघु-मूर्तियों की कला अति प्राचीनतम महत्व् ब् की है, जैसा कि हमने पहले ही हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में देखा है जहां भारी मात्रा में मृण्मू र्तियां मिली हैं ।

शिव का सिर गुप्तो मृण्मूरर्ति का एक उत्कृ ष्ट उदाहरण है जिसे एक मुख्या एवं मनोहारी शीर्षस्थ गांठ से बंधे निष्प्रयभ लट के रूप में दर्शाया गया है । शिव तथा पार्वती दोनों की आकृतियों के चेहरे की अभिव्यटक्ति ध्याकन देने योग्यम है और ये अहिछत्र के दो सर्वाधिक मनोहारी नूमने हैं ।


पार्वती का सिर तीसरी आंख के साथ है और माथे पर अर्द्धचन्द्र है । उनकी अलक-लटों को खूबसूरती के साथ व्य्वस्थि‍त किया गया है, उनकी वेणी को एक माला से कसा गया है और पुष्प् के एक उभार से सजाया गया है । उन्होंीने एक गोल बाली पहनी हुई है जिस पर स्वा स्तिक का चिह्न है ।

दक्षिण में वाकाटक सर्वोपरि थे जो उत्त र में गुप्त के समकालिक थे । इनके क्षेत्र में कला में हासिल किए गए सम्पूगर्णता के उच्चद जल-चिह्न को अजन्ताव की उत्त रवर्ती गुफाओं में और ऐलोरा की एवं औरंगाबाद की पूर्ववर्ती गुफाओं में बेहतर ढंग से देखा जा सकता है ।

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